सोमवार, 1 जुलाई 2013

मन के जज्बात

अमरनाथ जाते हुए मार्ग मे
आज इतने दिनों बाद लेखन करने बैठा हूँ तो सोचता हूँ क्या लिँखू ? बस अब मन में यही आ रहा है कि अपने मन के जज्बात लिखूँ क्योंकि उन्हें मै किसी से साझा नहीं कर पाता हूँ । सच कहूँ तो अब तक ऐसा कोई मित्र मिला ही नहीं जिससे अपने मन की बात साझा कर सकूँ । मन भी एक सागर की तरह है कभी शांत तो कभी विचार रूपी लहरें उठा करती है । यहीं मन अगर संतुलित ना रहे तो व्यक्ति अपना व्यक्तित्व तक खो बैठता है । अपने बारे मे मुझे ऐसा लगता है कि मुझमे नकारात्मक विचार ज्यादा है और उसी वजह से ही मै आगे अपनी मंजिल की और नहीं बढ पा रहा हूँ ।मै इन नकारात्मक विचारों से जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहता हूँ  क्योंकि नकारात्मक विचार जीवन को कभी सकारात्मक रूख नहीं दे पायेंगे । सकारात्मक सोच जीवन में सदा ख़ुशियाँ ही लाती है । मैं हमेढर्रें पर लौट आता । परेशान हो गया हूँ अपनी इस मानसिक दुर्बलता से । अभी गीता पढ रहा हूँ ज्यादा नहीं अभी कुछ दोहे और उनका कुछ अर्थ ही पढा है । गीता मे कहा गया है आत्मा अनश्वर और अविकृत है । आत्मा मे परिवर्तन का कोई गुण नहीं है फिर मैं ये सोचने लगा कि परिवर्तन बिना संसार कैसे चलेगा । परिवर्तन तो संसार का नियम है और यही सुख और दुःख का मूल है फिर मन मे तर्क उठता है कि आत्मा सुख-दुःख और इस प्रकृति से भी परे है । गीता मे कहा गया है कि आत्मा चिंतन  का भी विषय नहीं है अर्थात आत्मा का चिंतन संभव ही नहीं है । मुझे तो सबसे कठिन कार्य जीवन मे सतुंलन बैठाना लगता है कभी एक चीज पर ध्यान दो तो लगता है कि दूसरे पर भी काम करना जरूरी है । एक को महत्व दो तो दूसरा कार्य भी महत्वपूर्ण लगने लगता है ऐसे में यहीं उलझन होती है क्या करे और क्या ना करे ।
शा से ही लकीर का फ़क़ीर रहा कारण कि मैं हमेशा अलग परिणाम की चाह में योजनाएँ बनाता पर कुछ ही दिनों मे फिर पुराने

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