शनिवार, 29 सितंबर 2012

कर्मों का फल

जब भीष्म पितामह ने पूछा - "मेरे कौन से
कर्म का फल है जो मैं सरसैया पर पड़ा हुआ
हूँ?''

बात प्राचीन महाभारत काल की है।
महाभारत के युद्ध में जो कुरुक्षेत्र के मैंदान
में हुआ, जिसमें अठारह
अक्षौहणी सेना मारी गई,
स युद्ध के समापन और
सभी मृतकों को तिलांज्जलि देने के बाद
पांडवों सहित श्री कृष्ण पितामह भीष्म से
आशीर्वाद लेकर हस्तिनापुर को वापिस
हुए तब श्रीकृष्ण को रोक कर पितामाह ने
श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया, "मधुसूदन, मेरे
कौन से कर्म का फल है जो मैं सर
सैया पर पड़ा हुआ हूँ?'' यह बात सुनकर
मधुसूदन मुस्कराये और पितामह भीष्म से
पूछा, 'पितामह आपको कुछ पूर्व
जन्मों का ज्ञान है?'' इस पर पितामह ने
कहा, 'हाँ''। श्रीकृष्ण मुझे अपने सौ पूर्व
जन्मों का ज्ञान है कि मैंने
किसी व्यक्ति का कभी अहित नहीं किया?
इस पर श्रीकृष्ण मुस्कराये और बोले
पितामह आपने ठीक कहा कि आपने
कभी किसी को कष्ट नहीं दिया, लेकिन एक
सौ एक वें पूर्वजन्म में आज की तरह तुमने तब
भी राजवंश में जन्म लिया था और अपने पुण्य
कर्मों से बार-बार राजवंश में जन्म लेते रहे,
लेकिन उस जन्म में जब तुम युवराज थे, तब एक
बार आप शिकार खेलकर जंगल से निकल रहे
थे, तभी आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक
करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरा। आपने अपने
बाण से उठाकर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया,
उस समय वह बेरिया के पेड़ पर जा कर
गिरा और बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस
गये क्योंकि पीठ के बल ही जाकर
गिरा था? करकेंटा जितना निकलने
की कोशिश करता उतना ही कांटे
उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार
करकेंटा अठारह दिन जीवित रहा और
यही ईश्वर से प्रार्थना करता रहा, 'हे
युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु
को प्राप्त हो रहा हूँ, ठीक इसी प्रकार
तुम भी होना।'' तो, हे पितामह भीष्म!
तुम्हारे पुण्य कर्मों की वजह से आज तक तुम
पर करकेंटा का श्राप लागू नहीं हो पाया।
लेकिन हस्तिनापुर की राज सभा में
द्रोपदी का चीर-हरण होता रहा और आप
मूक दर्शक बनकर देखते रहे। जबकि आप सक्षम
थे उस अबला पर अत्याचार रोकने में, लेकिन
आपने दुर्योधन और दुःशासन
को नहीं रोका। इसी कारण पितामह आपके
सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और
करकेंटा का 'श्राप' आप पर लागू हो गया।
अतः पितामह प्रत्येक मनुष्य को अपने
कर्मों का फल कभी न
कभी तो भोगना ही पड़ेगा।
प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय
सर्वोपरि और प्रिय है। इसलिए पृथ्वी पर
निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव
जन्तु को भी भोगना पड़ता है और कर्मों के
ही अनुसार ही जन्म होता है।




मंगलवार, 25 सितंबर 2012

स्वामी विवेकानन्द

विवेकानंद जी का विश्व प्रसिद्ध भाषण

स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893
को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म
सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था।
विवेकानंद का जब भी जिक्र आता है उनके इस
भाषण की चर्चा जरूर होती है। पढ़ें विवेकानंद
का यह भाषण...

अमेरिका के बहनो और भाइयो
...

आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से
मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं
आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत
परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं
आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से
धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से
आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ
उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह
कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर
पूरब के देशों से फैला है।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे
धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम
सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में
ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के
सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस
धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और
सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते
हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन
इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर
रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था।
और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी।

मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं,
जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण
दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है।

भाइयो,
मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से
स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज
करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है:
जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से
निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में
जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग
चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें,
पर सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन जोकि आज तक की सबसे
पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस
सिद्धांत का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है,
चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग
चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक
ही पहुंचते हैं।

सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक
वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने
शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने
पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार
ही यह धरती खून से लाल हुई है।
कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव
समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब
उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है
कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद
सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे
तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।

स्वामी विवेकानन्द

सोमवार, 24 सितंबर 2012

क्रोध पर विजय

एक 12-13 साल के लड़के को बहुत क्रोध आता था। उसके पिता ने उसे ढेर सारी कीलें दीं और कहा कि जब भी उसे क्रोध आए वो घर के सामने लगे पेड़ में वह कीलें ठोंक दे।

पहले दिन लड़के ने पेड़ में 30 कीलें ठोंकी। अगले कुछ हफ्तों में उसे अपने क्रोध पर धीरे-धीरे नियंत्रण करना आ गया। अब वह पेड़ में प्रतिदिन इक्का-दुक्का कीलें ही ठोंकता था। उसे यह समझ में आ गया था कि पेड़ में कीलें ठोंकने के बजाय क्रोध पर नियंत्रण करना आसान था। एक दिन ऐसा भी आया जब उसने पेड़ में एक भी कील नहीं ठोंकी। जब उसने अपने पिता को यह बताया तो पिता ने उससे कहा कि वह सारी कीलों को पेड़ से निकाल दे।

लड़के ने बड़ी मेहनत करके जैसे-तैसे पेड़ से सारी कीलें खींचकर निकाल दीं। जब उसने अपने पिता को काम पूरा हो जाने के बारे में बताया तो पिता बेटे का हाथ थामकर उसे पेड़ के पास लेकर गया।

पिता ने पेड़ को देखते हुए बेटे से कहा – “तुमने बहुत अच्छा काम किया, मेरे बेटे, लेकिन पेड़ के तने पर बने सैकडों कीलों के इन निशानों को देखो। अब यह पेड़ इतना खूबसूरत नहीं रहा। हर बार जब तुम क्रोध किया करते थे तब इसी तरह के निशान दूसरों के मन पर बन जाते थे।

अगर तुम किसी के पेट में छुरा घोंपकर बाद में हजारों बार माफी मांग भी लो तब भी घाव का निशान वहां हमेशा बना रहेगा।

अपने मन-वचन-कर्म से कभी भी ऐसा कृत्य न करो जिसके लिए तुम्हें सदैव पछताना पड़े...!!

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

बहुत बङी सीख

बहुत समय पहले की बात है एक बड़ा सा तालाब था उसमें सैकड़ों मेंढक रहते थे। तालाब में कोई राजा नहीं था, सच मानो तो सभी राजा थे। दिन पर दिन अनुशासनहीनता बढ़ती जाती थी और स्थिति को नियंत्रण में करने वाला कोई नहीं था। उसे ठीक करने का कोई यंत्र तंत्र मंत्र दिखाई नहीं देता था। नई पीढ़ी उत्तरदायित्व हीन थी। जो थोड़े बहुत होशियार मेंढक निकलते थे वे पढ़-लिखकर अपना तालाब सुधारने की बजाय दूसरे तालाबों में चैन से जा बसते थे।

हार कर कुछ बूढ़े मेंढकों ने घनी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया और उनसे आग्रह किया कि तालाब के लिये कोई राजा भेज दें। जिससे उनके तालाब में सुख चैन स्थापित हो सके। शिव जी ने प्रसन्न होकर "नंदी" को उनकी देखभाल के लिये भेज दिया। नंदी तालाब के किनारे इधर उधर घूमता, पहरेदारी करता लेकिन न वह उनकी भाषा समझता था न उनकी आवश्यकताएँ। अलबत्ता उसके खुर से कुचलकर अक्सर कोई न कोई मेंढक मर जाता। समस्या दूर होने की बजाय और बढ़ गई थी। पहले तो केवल झगड़े झंझट होते थे लेकिन अब तो मौतें भी होने लगीं।

फिर से कुछ बूढ़े मेंढकों ने तपस्या से शिव जी को प
्रसन्न किया और राजा को बदल देने की प्रार्थना की। शिव जी ने उनकी बात का सम्मान करते हुए नंदी को वापस बुला लिया और अपने गले के सर्प को राजा बनाकर भेज दिया। फिर क्या था वह पहरेदारी करते समय एक दो मेंढक चट कर जाता। मेंढक उसके भोजन जो थे। मेंढक बुरी तरह से परेशानी में घिर गए थे।
फिर से मेंढकों ने घबराकर अपनी तपस्या से भोलेशंकर को प्रसन्न किया
शिव भी थे तो भोलेबाबा ही, सो जल्दी से प्रकट हो गए। मेंढकों ने कहा, 'आपका भेजा हुआ कोई भी राजा हमारे तालाब में व्यवस्था नहीं बना पाया। समझ में नहीं आता कि हमारे कष्ट कैसे दूर होंगे। कोई यंत्र या मंत्र काम नहीं करता। आप ही बताएँ हम क्या करें?'

इस बार शिव जी जरा गंभीर हो गए। थोड़ा रुक कर बोले, यंत्र मंत्र छोड़ो और स्वतंत्र स्थापित करो। मैं तुम्हें यही शिक्षा देना चाहता था। तुम्हें क्या चाहिये और तुम्हारे लिये क्या उपयोगी वह केवल तुम्हीं अच्छी तरह समझ सकते हो। किसी भी तंत्र में बाहर से भेजा गया कोई भी विदेशी शासन या नियम चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो तुम्हारे लिये अच्छा नहीं हो सकता। इसलिये अपना स्वाभिमान जागृत करो, संगठित बनो, अपना तंत्र बनाओ और उसे लागू करो। अपनी आवश्यकताएँ समझो, गलतियों से सीखो। माँगने से सबकुछ प्राप्त नहीं होता, अपने परिश्रम का मूल्य समझो और समझदारी से अपना तंत्र विकसित करो।
मालूम नहीं फिर से उस तालाब में शांति स्थापित हो सकी या नहीं। लेकिन इस कथा से भारतवासी भी बहुत कुछ सीख सकते हैं...

सोमवार, 17 सितंबर 2012

आज की सीख

आज का रोजानामचा

आज दिन भर कोई काम नहीं था बस मै और मेरा लैपटॅाप । सवेरे से बस लैपटॅाप पर जुटा हुआ हूँ । बस वहीं फेसबुक, टविटर और ब्लागर और कुछेक मनपंसद ब्लागों पर दिन भर चहलकदमी चलती रही । सबसे पहले तो फेसबुक की अपनी आई ङी खोली । लोगों को हिन्दी दिवस की बधाईया दी तो सोचा कि चलो अपने कुछ खास ब्लागर  मित्रों को उनके ब्लाग पर जाकर शुभकामननाए दी जाए पर अचानक मुझ पर व्रजपात सा हुआ जब बी एस पाबला कि प्रोफाइल पर गया तो देखता हूं कि उनकी प्रोफाइल पर शोक संदेशो का  जाम लगा हुआ है जब पता किया तो पता चला कि पाबला जी पर असमय दुःख के बादल छा गये है उनके बेटे की आकस्मयिक मृत्यु हो गयी । सुन कर बङा ही दुःख हुआ पर कोई मन को समझाने के सिवा क्या कर सकता है । जब इस दुःखद घटना से बाहर निकला तो फिर आज बहुत दिन बाद अपने ब्लॅाग को अपङेट किया साथ ही उसकी थीम में भी थोङा बहुत बदलाव किया । अब ब्लॅाग आपकों एक नये लुक में देखने मे मिलेगा । बस अब नींद आ रही है तो मै सोने चला । आज की इस बेतरतीब लेखन के लिए माफी चाहता हूँ । आज मन किया कि कुछ भी लिखूँ इसलिए जो मन में था आज वही लिखा हैं ।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

हिंदी के लिए दोधारी तलवार सोशल नेटवर्किंग?

हिंदी के लिए दोधारी तलवार सोशल नेटवर्किंग?: आज की नई पीढ़ी मनोरंजन और संवाद के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ज़्यादा वक्त बिताती है. ऐसे में हिंदी भाषा और साहित्य का भविष्य क्या है.

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

मेरी वापसी


बहुत दिनों तक मै अपनें इस चिट्ठे से दूर रहा हूँ । इसका वास्तविक कारण तो आलस्य है और कुछ समय की कमी । बहुत दिनों से सोच रहा था कि अपने चिट्टे पर क्या लिखूं पर फिर मैनें सोचा कि मेरे चिट्ठे का नाम है ''मेरी सोच मेरा जीवन'' और यह चिट्ठा मैने अपनी सोच और अपने जीवन के विभिन्न पहुलओं से लोगों को परिचित कराने के लिए लिखा है हालाँकि मेरे जीवन में ऐसी कोई असाधारण बात नहीं है जिसमें लोगों की रूचि हो पर कहतें है कि हर इंसान कि सोच एक जैसी नहीं होती और हर इंसान कि सोच में कोई खास बात होती है । अपनी उस सोच और विभिन्न किस्सों के साथ आपके साथ आया हूँ ।

मेरी वापसी


बहुत दिनों तक मै अपनें इस चिट्ठे से दूर रहा हूँ । इसका वास्तविक कारण तो आलस्य है और कुछ समय की कमी । बहुत दिनों से सोच रहा था कि अपने चिट्टे पर क्या लिखूं पर फिर मैनें सोचा कि मेरे चिट्ठे का नाम है ''मेरी सोच मेरा जीवन'' और यह चिट्ठा मैने अपनी सोच और अपने जीवन के विभिन्न पहुलओं से लोगों को परिचित कराने के लिए लिखा है हालाँकि मेरे जीवन में ऐसी कोई असाधारण बात नहीं है जिसमें लोगों की रूचि हो पर कहतें है कि हर इंसान कि सोच एक जैसी नहीं होती और हर इंसान कि सोच में कोई खास बात होती है । अपनी उस सोच और विभिन्न किस्सों के साथ आपके साथ आया हूँ ।