गुरुवार, 1 नवंबर 2012

मनुष्य परिवर्तन का सृष्टा

                 अपने अतीत का मनन और मंथन हम भविष्य के लिए संकेत पाने के प्रयोजन से करते हैं । वर्तमान मे अपने आपकों असमर्थ पाकर भी हम अपने अतीत मे अपनी क्षमता का परिचय पाते हैं । इतिहास घटनाओं के रूप में अपनी पुनरावृत्ति नहीं करता । परिवर्तन का सत्य ही इतिहास का तत्व है परन्तु परिवर्तन की इस श्रृंखला में अपने अस्तित्व की रक्षा और विकास के लिए व्यक्ति औेर समाज का प्रयत्न निरन्तर विद्यमान रहा है । वही सब परिवर्तनों की मूल प्रेरक शक्ति है ।
                 इतिहास का तत्व विभिन्न परिस्थितियों मे व्यक्ति और समाज की रचनात्मक क्षमता का विश्लेषण करता है । मनुष्य केवल परिस्थितियों को सुलझाता ही नहीं, वह परिस्थितियों का निर्माण भी करता है । वह प्राकृतिक और भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन करता है, समाजिक परिस्थितियों का वह  सृष्टा है ।
                 इतिहास विश्वास की नहीं,  विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनुष्य का अपनी परम्परा में आत्म-विश्लेषण है । जैसे नदी मे प्रतिक्षण नवीन जल बहने पर भी नदी का अस्तित्व और उसका नाम नहीं बदलता वैसे ही किसी मे जन्म-मरण की निरन्तर क्रिया और व्यवहार के परिवर्तन से वह जाति नहीं बदल जाती । अतीत में अपने रचनात्मक सामथर्य और परिस्थितियों के सुलझाव और रचना के लिए निर्देश पाती है ।
                इतिहास के मन्थन से प्राप्त अनुभव के अनेक रत्नों में सबसे प्रकाशमान तथ्य है- मनुष्य भोक्ता नहीं, कर्ता है । सम्पूर्ण माया मनुष्य की ही क्रीडा है । इसी सत्य को अनुभव कर हमारे विचारकों ने कहा था- "न मानुषात् श्रेष्ठतरं ही किंचित्  !"
                मनुष्य से बडा है केवल उसका अपना विश्वास और स्वयं उसका ही रचा हुआ विधान । अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है और स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है ।

                 यह विचार चितंन प्रसिद्ध उपन्यासकार यशपाल जी का है जो उन्होने अपने उपन्यास दिव्या में प्रस्तुत किया है । उनका यह चिंतन आज के युग मे भी प्रासगिंक है ।

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

न्याय

न्याय !!!
एक ग्वालिन नजदीक के शहर से दूध बेचकर वापस अपने गाँव आ रही थी। रास्ते में तालाब के किनारे थोड़ा -विश्राम करने बैठ गयी। वट वृक्ष की घनी छाया और पानी की ठंडी हिलोरें। थकावट के कारण ग्वालिन को नींद-सी आने लगी। उस पेड़ पर एक चंचल बन्दर का निवास था। इधर ग्वालिन को नींद आई और उधर वह बन्दर लोटे के पास रखी हुई पैसों की थैली ले भागा।
जागने पर ग्वालिन को पता लगा तो उसने बहुत देर तक बन्दर के निहोरे किये, उसके बार-बार हाथ जोड़े। काफी परेशान करने के बाद बंदर ने थैली खोली। एक पैसा तालाब के पानी में फेंकता और एक पैसा उसके लोटे में। ठीक आधी पूंजी ग्वालिन के पल्ले पड़ी। ग्वालिन को मन-ही-मन बड़ा अचरज हुआ कि यह बन्दर तो अदल न्यायी निकला, दूध के पैसे दूध में और पानी के पैसे पानी में। अनजाने में ही उसने न्यायोचित फैसला कर दिया।
साभार 'कादम्बिनी'

सफल जीवन का रहस्य

एक दिन स्वामी विवेकानन्द दुर्गाबाड़ी से माँ दुर्गा के दर्शन करके जब लौट रहे थे, तो बन्दरों का एक दल उनके पीछे लग गया। यह देखकर स्वामी जी ने कुछ भय से लम्बे-लम्बे डग भरने आरंभ कर दिए। बन्दरों ने भी उसी तेज गति से उनका पीछा जारी रखा। यह देखकर स्वामी जी और भी शंकित हो उठे और बन्दरों से छुटकारा पाने के लिए दौड़ने लगे। बन्दरों ने भी उनके पीछे दौड़ना आरंभ कर दिया। यह देखकर स्वामी जी और भी घबरा उठे और उन्हें अधिक तेज दौड़ने के सिवा बन्दरों से बच निकले का कोई दूसरा उपाय नहीं सूझ रहा था। दौड़ते-दौड़ते सांस फूलने लगी, परन्तु बन्दर थे कि पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे। संयोग की बात हैं कि सामने से एक वृद्ध साधु आ रहा था। उसने संन्यासी विवेकानन्द की घबराहट की यह दशा देखकर उन्हें सम्बोधित करते हुए आवाज दी, ‘‘नौजवान रूक जाओ, भागो नहीं, बन्दरों की ओर मुँह करके खड़े हो जाओ।’’ वे बन्दरों की ओर मुँह करके खड़े हो गये। फिर क्या था, बन्दर ठिठक गए और कुछ ही क्षणों में बन्दर तितर-बितर हो गए।
इस घटना से एक बहुत बड़ी शिक्षा मिलती हैं, जो स्वामी जी ने ग्रहण की। वह यह हैं कि जीवन में विपत्तियों से छुटकारा पाने के लिए विपत्तियों का साहस पूर्वक सामना करना चाहिए। उन्होंने अमरीका के न्यूयार्क नगर में भाषण देते हुए इस घटना का वर्णन किया था और कहा, ‘‘इस प्रकार प्रकृति के विरूद्ध मुँह करके खड़े हो जाओ, अज्ञान के विरूद्ध, माया के विरूद्ध मुँह करके खड़े हो जाओ और भागो नहीं।’’ संसार में सफल जीवन बिताने का यही रहस्य हैं...

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

देवनागरी(हिन्दी) मे लिखने का सरल तरीका


Microsoft Indic Language Input Tool
बहुधा लोग फेसबुक चैट और टिप्पणियों में सीधे देवनागरी में लिखते देख उसकी विधि और उपाय पूछते हैं।
जिन्हें कंप्यूटर पर सीधे देवनागरी में लिखने की विधि नहीं पता और वे सीधे देवनागरी में लिखना चाहते हैं वे माइक्रोसॉफ्ट का इंडिक लैंगवेज़ इनपुट टूल अपने कंप्यूटर में संस्थापित कर लें।
उसे यहाँ से
http://www.bhashaindia.com/ilit/
Install Desktop Version  क्लिक कर  डाऊनलोड करना होगा। यहीं पर दाहिनी ओर एक वीडियो ( Desktop Version Demo (captioned) भी दिया है जिसे देखकर क्रमवार उसी प्रकार करते जाएँ।
जिन्हें डेमो के वीडियो से उतना सुविधाजनक न प्रतीत हो वे यहाँ से सहायता लें और दिए गए निर्देशों का क्रमवार व अपने सिस्टम की आवश्यकतानुसार पालन करते जाएँ -

http://www.bhashaindia.com/ilit/GettingStarted.aspx?languageName=Hindi
आशा है, इसके पश्चात् आप सीधे देवनागरी में धाराप्रवाह लिखने लगेंगे।
जिन्हें देवनागरी लिखने पर सिस्टम में डिब्बे अथवा जंक-सा दिखाई देता हो वे यहाँ से सहायता ले सकते हैं -
http://www.bhashaindia.com/ilit/ComplexScriptSupport.aspx?languageName=Hindi
कोई असुविधा हो तो पूछ सकते हैं।

साभार - डॅा कविता वाचक्नवी










शनिवार, 29 सितंबर 2012

कर्मों का फल

जब भीष्म पितामह ने पूछा - "मेरे कौन से
कर्म का फल है जो मैं सरसैया पर पड़ा हुआ
हूँ?''

बात प्राचीन महाभारत काल की है।
महाभारत के युद्ध में जो कुरुक्षेत्र के मैंदान
में हुआ, जिसमें अठारह
अक्षौहणी सेना मारी गई,
स युद्ध के समापन और
सभी मृतकों को तिलांज्जलि देने के बाद
पांडवों सहित श्री कृष्ण पितामह भीष्म से
आशीर्वाद लेकर हस्तिनापुर को वापिस
हुए तब श्रीकृष्ण को रोक कर पितामाह ने
श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया, "मधुसूदन, मेरे
कौन से कर्म का फल है जो मैं सर
सैया पर पड़ा हुआ हूँ?'' यह बात सुनकर
मधुसूदन मुस्कराये और पितामह भीष्म से
पूछा, 'पितामह आपको कुछ पूर्व
जन्मों का ज्ञान है?'' इस पर पितामह ने
कहा, 'हाँ''। श्रीकृष्ण मुझे अपने सौ पूर्व
जन्मों का ज्ञान है कि मैंने
किसी व्यक्ति का कभी अहित नहीं किया?
इस पर श्रीकृष्ण मुस्कराये और बोले
पितामह आपने ठीक कहा कि आपने
कभी किसी को कष्ट नहीं दिया, लेकिन एक
सौ एक वें पूर्वजन्म में आज की तरह तुमने तब
भी राजवंश में जन्म लिया था और अपने पुण्य
कर्मों से बार-बार राजवंश में जन्म लेते रहे,
लेकिन उस जन्म में जब तुम युवराज थे, तब एक
बार आप शिकार खेलकर जंगल से निकल रहे
थे, तभी आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक
करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरा। आपने अपने
बाण से उठाकर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया,
उस समय वह बेरिया के पेड़ पर जा कर
गिरा और बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस
गये क्योंकि पीठ के बल ही जाकर
गिरा था? करकेंटा जितना निकलने
की कोशिश करता उतना ही कांटे
उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार
करकेंटा अठारह दिन जीवित रहा और
यही ईश्वर से प्रार्थना करता रहा, 'हे
युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु
को प्राप्त हो रहा हूँ, ठीक इसी प्रकार
तुम भी होना।'' तो, हे पितामह भीष्म!
तुम्हारे पुण्य कर्मों की वजह से आज तक तुम
पर करकेंटा का श्राप लागू नहीं हो पाया।
लेकिन हस्तिनापुर की राज सभा में
द्रोपदी का चीर-हरण होता रहा और आप
मूक दर्शक बनकर देखते रहे। जबकि आप सक्षम
थे उस अबला पर अत्याचार रोकने में, लेकिन
आपने दुर्योधन और दुःशासन
को नहीं रोका। इसी कारण पितामह आपके
सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और
करकेंटा का 'श्राप' आप पर लागू हो गया।
अतः पितामह प्रत्येक मनुष्य को अपने
कर्मों का फल कभी न
कभी तो भोगना ही पड़ेगा।
प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय
सर्वोपरि और प्रिय है। इसलिए पृथ्वी पर
निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव
जन्तु को भी भोगना पड़ता है और कर्मों के
ही अनुसार ही जन्म होता है।




मंगलवार, 25 सितंबर 2012

स्वामी विवेकानन्द

विवेकानंद जी का विश्व प्रसिद्ध भाषण

स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893
को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म
सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था।
विवेकानंद का जब भी जिक्र आता है उनके इस
भाषण की चर्चा जरूर होती है। पढ़ें विवेकानंद
का यह भाषण...

अमेरिका के बहनो और भाइयो
...

आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से
मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं
आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत
परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं
आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से
धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से
आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ
उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह
कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर
पूरब के देशों से फैला है।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे
धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम
सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में
ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के
सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस
धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और
सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते
हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन
इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर
रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था।
और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी।

मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं,
जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण
दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है।

भाइयो,
मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से
स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज
करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है:
जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से
निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में
जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग
चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें,
पर सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन जोकि आज तक की सबसे
पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस
सिद्धांत का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है,
चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग
चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक
ही पहुंचते हैं।

सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक
वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने
शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने
पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार
ही यह धरती खून से लाल हुई है।
कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव
समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब
उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है
कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद
सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे
तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।

स्वामी विवेकानन्द

सोमवार, 24 सितंबर 2012

क्रोध पर विजय

एक 12-13 साल के लड़के को बहुत क्रोध आता था। उसके पिता ने उसे ढेर सारी कीलें दीं और कहा कि जब भी उसे क्रोध आए वो घर के सामने लगे पेड़ में वह कीलें ठोंक दे।

पहले दिन लड़के ने पेड़ में 30 कीलें ठोंकी। अगले कुछ हफ्तों में उसे अपने क्रोध पर धीरे-धीरे नियंत्रण करना आ गया। अब वह पेड़ में प्रतिदिन इक्का-दुक्का कीलें ही ठोंकता था। उसे यह समझ में आ गया था कि पेड़ में कीलें ठोंकने के बजाय क्रोध पर नियंत्रण करना आसान था। एक दिन ऐसा भी आया जब उसने पेड़ में एक भी कील नहीं ठोंकी। जब उसने अपने पिता को यह बताया तो पिता ने उससे कहा कि वह सारी कीलों को पेड़ से निकाल दे।

लड़के ने बड़ी मेहनत करके जैसे-तैसे पेड़ से सारी कीलें खींचकर निकाल दीं। जब उसने अपने पिता को काम पूरा हो जाने के बारे में बताया तो पिता बेटे का हाथ थामकर उसे पेड़ के पास लेकर गया।

पिता ने पेड़ को देखते हुए बेटे से कहा – “तुमने बहुत अच्छा काम किया, मेरे बेटे, लेकिन पेड़ के तने पर बने सैकडों कीलों के इन निशानों को देखो। अब यह पेड़ इतना खूबसूरत नहीं रहा। हर बार जब तुम क्रोध किया करते थे तब इसी तरह के निशान दूसरों के मन पर बन जाते थे।

अगर तुम किसी के पेट में छुरा घोंपकर बाद में हजारों बार माफी मांग भी लो तब भी घाव का निशान वहां हमेशा बना रहेगा।

अपने मन-वचन-कर्म से कभी भी ऐसा कृत्य न करो जिसके लिए तुम्हें सदैव पछताना पड़े...!!

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

बहुत बङी सीख

बहुत समय पहले की बात है एक बड़ा सा तालाब था उसमें सैकड़ों मेंढक रहते थे। तालाब में कोई राजा नहीं था, सच मानो तो सभी राजा थे। दिन पर दिन अनुशासनहीनता बढ़ती जाती थी और स्थिति को नियंत्रण में करने वाला कोई नहीं था। उसे ठीक करने का कोई यंत्र तंत्र मंत्र दिखाई नहीं देता था। नई पीढ़ी उत्तरदायित्व हीन थी। जो थोड़े बहुत होशियार मेंढक निकलते थे वे पढ़-लिखकर अपना तालाब सुधारने की बजाय दूसरे तालाबों में चैन से जा बसते थे।

हार कर कुछ बूढ़े मेंढकों ने घनी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया और उनसे आग्रह किया कि तालाब के लिये कोई राजा भेज दें। जिससे उनके तालाब में सुख चैन स्थापित हो सके। शिव जी ने प्रसन्न होकर "नंदी" को उनकी देखभाल के लिये भेज दिया। नंदी तालाब के किनारे इधर उधर घूमता, पहरेदारी करता लेकिन न वह उनकी भाषा समझता था न उनकी आवश्यकताएँ। अलबत्ता उसके खुर से कुचलकर अक्सर कोई न कोई मेंढक मर जाता। समस्या दूर होने की बजाय और बढ़ गई थी। पहले तो केवल झगड़े झंझट होते थे लेकिन अब तो मौतें भी होने लगीं।

फिर से कुछ बूढ़े मेंढकों ने तपस्या से शिव जी को प
्रसन्न किया और राजा को बदल देने की प्रार्थना की। शिव जी ने उनकी बात का सम्मान करते हुए नंदी को वापस बुला लिया और अपने गले के सर्प को राजा बनाकर भेज दिया। फिर क्या था वह पहरेदारी करते समय एक दो मेंढक चट कर जाता। मेंढक उसके भोजन जो थे। मेंढक बुरी तरह से परेशानी में घिर गए थे।
फिर से मेंढकों ने घबराकर अपनी तपस्या से भोलेशंकर को प्रसन्न किया
शिव भी थे तो भोलेबाबा ही, सो जल्दी से प्रकट हो गए। मेंढकों ने कहा, 'आपका भेजा हुआ कोई भी राजा हमारे तालाब में व्यवस्था नहीं बना पाया। समझ में नहीं आता कि हमारे कष्ट कैसे दूर होंगे। कोई यंत्र या मंत्र काम नहीं करता। आप ही बताएँ हम क्या करें?'

इस बार शिव जी जरा गंभीर हो गए। थोड़ा रुक कर बोले, यंत्र मंत्र छोड़ो और स्वतंत्र स्थापित करो। मैं तुम्हें यही शिक्षा देना चाहता था। तुम्हें क्या चाहिये और तुम्हारे लिये क्या उपयोगी वह केवल तुम्हीं अच्छी तरह समझ सकते हो। किसी भी तंत्र में बाहर से भेजा गया कोई भी विदेशी शासन या नियम चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो तुम्हारे लिये अच्छा नहीं हो सकता। इसलिये अपना स्वाभिमान जागृत करो, संगठित बनो, अपना तंत्र बनाओ और उसे लागू करो। अपनी आवश्यकताएँ समझो, गलतियों से सीखो। माँगने से सबकुछ प्राप्त नहीं होता, अपने परिश्रम का मूल्य समझो और समझदारी से अपना तंत्र विकसित करो।
मालूम नहीं फिर से उस तालाब में शांति स्थापित हो सकी या नहीं। लेकिन इस कथा से भारतवासी भी बहुत कुछ सीख सकते हैं...

सोमवार, 17 सितंबर 2012

आज की सीख

आज का रोजानामचा

आज दिन भर कोई काम नहीं था बस मै और मेरा लैपटॅाप । सवेरे से बस लैपटॅाप पर जुटा हुआ हूँ । बस वहीं फेसबुक, टविटर और ब्लागर और कुछेक मनपंसद ब्लागों पर दिन भर चहलकदमी चलती रही । सबसे पहले तो फेसबुक की अपनी आई ङी खोली । लोगों को हिन्दी दिवस की बधाईया दी तो सोचा कि चलो अपने कुछ खास ब्लागर  मित्रों को उनके ब्लाग पर जाकर शुभकामननाए दी जाए पर अचानक मुझ पर व्रजपात सा हुआ जब बी एस पाबला कि प्रोफाइल पर गया तो देखता हूं कि उनकी प्रोफाइल पर शोक संदेशो का  जाम लगा हुआ है जब पता किया तो पता चला कि पाबला जी पर असमय दुःख के बादल छा गये है उनके बेटे की आकस्मयिक मृत्यु हो गयी । सुन कर बङा ही दुःख हुआ पर कोई मन को समझाने के सिवा क्या कर सकता है । जब इस दुःखद घटना से बाहर निकला तो फिर आज बहुत दिन बाद अपने ब्लॅाग को अपङेट किया साथ ही उसकी थीम में भी थोङा बहुत बदलाव किया । अब ब्लॅाग आपकों एक नये लुक में देखने मे मिलेगा । बस अब नींद आ रही है तो मै सोने चला । आज की इस बेतरतीब लेखन के लिए माफी चाहता हूँ । आज मन किया कि कुछ भी लिखूँ इसलिए जो मन में था आज वही लिखा हैं ।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

हिंदी के लिए दोधारी तलवार सोशल नेटवर्किंग?

हिंदी के लिए दोधारी तलवार सोशल नेटवर्किंग?: आज की नई पीढ़ी मनोरंजन और संवाद के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ज़्यादा वक्त बिताती है. ऐसे में हिंदी भाषा और साहित्य का भविष्य क्या है.

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

मेरी वापसी


बहुत दिनों तक मै अपनें इस चिट्ठे से दूर रहा हूँ । इसका वास्तविक कारण तो आलस्य है और कुछ समय की कमी । बहुत दिनों से सोच रहा था कि अपने चिट्टे पर क्या लिखूं पर फिर मैनें सोचा कि मेरे चिट्ठे का नाम है ''मेरी सोच मेरा जीवन'' और यह चिट्ठा मैने अपनी सोच और अपने जीवन के विभिन्न पहुलओं से लोगों को परिचित कराने के लिए लिखा है हालाँकि मेरे जीवन में ऐसी कोई असाधारण बात नहीं है जिसमें लोगों की रूचि हो पर कहतें है कि हर इंसान कि सोच एक जैसी नहीं होती और हर इंसान कि सोच में कोई खास बात होती है । अपनी उस सोच और विभिन्न किस्सों के साथ आपके साथ आया हूँ ।

मेरी वापसी


बहुत दिनों तक मै अपनें इस चिट्ठे से दूर रहा हूँ । इसका वास्तविक कारण तो आलस्य है और कुछ समय की कमी । बहुत दिनों से सोच रहा था कि अपने चिट्टे पर क्या लिखूं पर फिर मैनें सोचा कि मेरे चिट्ठे का नाम है ''मेरी सोच मेरा जीवन'' और यह चिट्ठा मैने अपनी सोच और अपने जीवन के विभिन्न पहुलओं से लोगों को परिचित कराने के लिए लिखा है हालाँकि मेरे जीवन में ऐसी कोई असाधारण बात नहीं है जिसमें लोगों की रूचि हो पर कहतें है कि हर इंसान कि सोच एक जैसी नहीं होती और हर इंसान कि सोच में कोई खास बात होती है । अपनी उस सोच और विभिन्न किस्सों के साथ आपके साथ आया हूँ ।

रविवार, 26 अगस्त 2012

उद्देशय से भटकाव

मन कभी - कभी बहुत उदास हो जाता है कारण उद्देशय का ना तय हो पाना । उद्देशयविहीन जीवन जलधारा की तरंगो की भांति लगता है जो कभी उस तट से टकराती है कभी दूसरे तट से टकराती है और इस टकराहट का कोई मतलब नहीं होता है । यह सब जानते हुए भी कुछ नहीं कर पाता हूँ । समझ में ही नहीं आता करूँ तो करूँ क्या ।
जीवन में उद्देश्य का होना बहुत जरूरी है । जीवन में स्पष्ट विचारधारा का होना बहुत जरूरी है ।

रविवार, 27 मई 2012

गुरुवार, 24 मई 2012

दैनिक जीवन

प्रतिदिन जब मै सुबह उठता हूँ तो यहीं सोचता हूँ की आज का दिन एक नई जिन्दगी की तरह जीना है और सारे छूटे हुए काम पूरे करने हैं । पर दिन खत्म होते होते फिर उसी पुराने ढर्रें पर आ जाता हूं । शायद इसीलिए विद्वान लोगों ने सही कहा है कि दुनिया को बदलने से पहले स्वंय को बदलो ।

बुधवार, 23 मई 2012

शुक्रवार, 11 मई 2012

विश्वास

कहते है कि विश्वास मे वो शक्ति है जो पत्थर मे भी जान डाल देती है। अगर किसी व्यक्ति पर विश्वास किया जाय तो वह उस कार्य को करने के योग्य हो जाता है । मेरा मानना भी यही है कि यह सत्य है । विश्वास एक बहुत ही अदभुत भाव है ।

रविवार, 8 जनवरी 2012

वर्तमान जल संकट

जल ही जीवन है। जल जीवन का सार है। प्राणी कुछ समय के लिए भोजन के बिना तो रह सकता है लेकिन पानी के बिना नहीं। जल के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। अतः जल जीवन की वह ईकाई है जिसमें जीवन छिपा है। वर्तमान में  इस जल पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। जल की कमी ने मानव जाति के सामने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। जल के लिए दुनिया के कईं राष्ट्रों में हालात विकट है। अगर हम वैश्विक परिदृष्य पर गौर करें तो कईं चैकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। विश्व में 260 नदी बेसिन इस प्रकार के हैं जिन पर एक से अधिक देशों  का हिस्सा है| इन देशों के बीच जल बंटवारे को लेकर किसी प्रकार का कोई वैधानिक समझौता नहीं है। दुनिया के कुल उपलब्ध जल का एक प्रतिषत ही जल पीने योग्य है। हमें पीने का पानी ग्लेष्यिरों से प्राप्त होता है और ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ा है और इस कारण भविष्य में जल संकट की भयंकर तस्वीर सामने आ सकती है। दुनिया में जल उपलब्धता 1989 में 9000 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति थी जो 2025 तक 5100 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति हो जाएगी और यह स्थिति मानव जाति के संकट की स्थिति होगी। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में आधी से ज्यादा नदियाँ प्रदूषित हो चुकी है और इनका पानी पीने योग्य नहीं रहा है और इन नदियों में पानी की आपूर्ति भी निरन्तर कम हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन के अनुसार दुनिया भर में 86 फीसदी से अधिक बीमारियों का कारण असुरक्षित व दूषित पेयजल है। वर्तमान में 1600 जलीय प्रजातियां जल प्रदूषण के कारण लुप्त होने के कगार पर है। विश्व में 1.10 अरब लोग दूषित पेयजल पीने को मजबूर है और साफ पानी के बगैर अपना गुजारा कर रहे हैं। इसी संदर्भ में अगर हम भारतीय परिदृष्य पर गौर करें तो हालात और भी विकट है। वर्तमान में 303.6 मिलियन क्यूबिक फीट पानी प्रतिवर्ष एशिआई नदियों को ह&

आम आदमी

हर बात के प्रत्यक्ष दर्शी हैं हम सारे फिर भी न जाने क्यों अप्रत्यक्ष भाव में जिए जा रहे हैं हम जरुरत तो हमारी भी जहाज की है फिर भी समंदर का सफ़र नाव में किये जा रहे हैं हम जब से मिला है "आम आदमी" का तमगा बस उस शब्द के स्वभाव में जिंदगी जिए जा रहे हैं हम अगर प्रत्यक्ष दर्शी हो तो गवाह बनो समंदर पार होना है तो जहाज बनो अगर आदमी हो तो आम नहीं, खास बनो कब तक साक्षी रहोगे, अब तो साक्ष्य बनो....

शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

राजनीति का शिकार लोकपाल विधेयक

हर बार किसी न किसी कारण से पारित होने से रुका लोकपाल विधेयक इस बार देशभर में कथित रूप से उठे बड़े जनआंदोलन के बावजूद राजनीति की भेंट चढ़ गया। राजनीतिज्ञों ने तो राजनीति की ही, एक पवित्र उद्देश्य के लिए आवाज उठाने के बाद राजनीति के दलदल में फंसी टीम अन्ना भी पटरी से उतर गई। असल में लोकपाल के लिए दबाव बनाने की जिम्मेदारी का निर्वाह कर पाने में जब प्रमुख विपक्षी दल भाजपा विफल हुआ तो इसकी जिम्मेदारी टीम अन्ना ने ली और आमजन में भी आशा की किरण जागी, मगर वह भी अपने आंदोलन को निष्पक्ष नहीं रख पाई और सरकार पर दबाव बनाने की निष्पक्ष पहल के नाम पर सीधे कांग्रेस पर ही हमला बोलने लगी। पर्दे के पीछे से संघ और भाजपा से सहयोग लेने के कारण पूरा आंदोलन राजनीतिक हो गया। ऐसे में जाहिर तौर पर कांग्रेस सहित सभी दलों ने खुल कर राजनीति की और लोकपाल विधेयक लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में अटक गया। भले ही गांधीवादी विचारधारा के कहे जाने वाले अन्ना को देश का दूसरा गांधी कहने पर विवाद हो, मगर यह सच है कि पहली बार पूरा देश व्यवस्था परिवर्तन के साथ खड़ा दिखाई दिया। दुनिया के अन्य देशों में हुई क्रांति से तुलना करते हुए लोगों को लग रहा था कि हम भी सुधार की दिशा में बढ़ रहे हैं। मीडिया की ओर से मसीहा बनाए गए अन्ना में लोगों ने अपूर्व विश्वास जताया, मगर उनकी टीम को लेकर उठे विवादों से आंदोलन की दिशा बदलने लगी। जाहिर तौर पर सत्तारूढ़ दल कांग्रेस पर सीधे हमलों की वजह से प्रतिक्रिया में विवाद खड़े किए जाने लगे, मगर टीम अन्ना के लोग उससे विचलित हो गए और उन्होंने सीधे कांग्रेस पर हमले तेज कर दिए। देश हित की खातिर चल रहा आंदोलन कांग्रेस बनाम टीम अन्ना हो गया। इसके लिए जाहिर तौर पर दोनों ही जिम्मेदार थे। रहा सवाल भाजपा व अन्य दलों का, तो उन्हें मजा आ गया। वे इस बात खुश थे कि कांगे्रस की हालत पतली हो रही है और इसका फायदा उन्हें आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में मिलेगा। आंदोलन के राजनीतिक होने के साथ ही उनकी दिलचस्पी इसमें नहीं थी कि एक सशक्त लोकपाल कायम हो जाए, बल्कि वे इसमें ज्यादा रुचि लेने लगे कि कैसे कांग्रेस को और घेरा जाए। रही सही कसर टीम अन्ना ने हिसार के उप चुनाव में खुल कर कांग्रेस का विरोध करके पूरी कर दी। वे मौखिक तौर पर तो यही कहते रहे कि उनकी किसी दल विशेष से कोई दुश्मनी नहीं है, मगर धरातल पर कांग्रेस से सीधे टकराव मोल लेने लगे। यहां तक कि अन्ना ने आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हराने का ऐलान कर दिया। खुद को राजनीति से सर्वथा दूर बताने वाली टीम अन्ना ने, जो कि पहले राजनेताओं से दूरी कायम रख रही थी, बाद में अपने मंच पर ही राजनीतिक दलों को बहस करने का न्यौता दे दिया। स्वाभाविक रूप से उनके मंच पर कांग्रेस नहीं गई, लेकिन अन्य दलों ने जा कर टीम अन्ना के लिए अपनी प्रतिबद्धता को जाहिर किया। यद्यपि इससे अन्ना का आंदोलन पूरी तरह से राजनीतिक हो गया, मगर इससे यह उम्मीद जगी कि अब सत्तारूढ़ दल और दबाव में आएगा और इस बार लोकपाल विधेयक पारित हो जाएगा। मगर अफसोस कि जैसे ही विधेयक संसद में चर्चा को पहुंचा, कांग्रेस के नेतृत्व वाले सत्ताधारी गठबन्धन यूपीए और भाजपा के नेतृत्व वाले मुख्य विपक्षी गठबन्धन एनडीए सहित सभी छोटे-बड़े विपक्षी दलों ने खुल कर राजनीति शुरू कर दी। लोकसभा में तो कांग्रेस ने अपने संख्या बल से उसे पारित करवा लिया, मगर राज्यसभा में कमजोर होने के कारण मात खा गई। कई स्वतंत्र विश्लेषकों सहित भाजपा व अन्य दलों ने कांग्रेस के फ्लोर मैनेजमेंट में असफल रहने की दुहाई दी। सवाल उठता है कि जब संख्या बल कम था तो विधेयक के पारित न हो पाने के लिए सीधे तौर पर कांग्रेस कैसे जिम्मेदार हो गई। लोकसभा में लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने का संशोधन भी विपक्ष के असहयोग के कारण गिरा तो राज्यसभा में भी इसी वजह से विधेयक लटक गया। निष्कर्ष यही निकला कि यह कांग्रेस का नाटक था, मगर यह नाटक करने का मौका विपक्ष ने ही दिया। विपक्ष की ओर से इतने अधिक संशोधन प्रस्ताव रख दिए गए कि नियत समय में उन पर चर्चा होना ही असंभव था। यहां तक कि कांग्रेस का सहयोगी संगठन तृणमूल कांग्रेस भी पसर गया। मजेदार बात ये रही कि इसे भी कांग्रेस की ही असफलता करार दिया गया। कुल मिला कर इसे कांग्रेस का कुचक्र करार दे दिया गया है, जब कि सच्चाई ये है कि हमाम में सभी नंगे हैं। कांग्रेस ज्यादा है तो विपक्ष भी कम नहीं है। अन्ना के मंच पर ऊंची-ऊंची बातें करने वाले संसद में आ कर पलट गए। ऐसे में यदि यह कहा जाए कि जो लोग भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगाते रहे हैं, वे संसद में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये घडिय़ाली आंसू बहाते नजर आये, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। संसद में सभी दल अपने-अपने राग अलापते रहे, लेकिन किसी ने भी सच्चे मन से इस कानून को पारित कराने का प्रयास नहीं किया। सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल पारित करवाने का दावा करने वाले यूपीए एवं एनडीए की ईमानदारी तथा सत्यनिष्ठा की पोल खुल गयी। भाजपा और उसके सहयोगी संगठन एक ओर तो अन्ना को उकसाते और सहयोग देते नजर आये, वहीं दूसरी ओर गांधीजी द्वारा इस देश पर थोपे गये आरक्षण को येन-केन समाप्त करने के कुचक्र भी चलते नजर आये। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने अन्दरूनी तौर पर यह तय कर लिया था कि लोकपाल को किसी भी कीमत पर पारित नहीं होने देना है और देश के लोगों के समक्ष यह सिद्ध करना है कि दोनों ही दल एक सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल कानून बनाना चाहते हैं, वहीं दूसरी और सपा-बसपा जैसे दलों ने भी विधेयक पारित नहीं होने देने के लिये संसद में फालतू हंगामा किया। अलबत्ता वामपंथी जरूर कुछ गंभीर नजर आए, मगर वे इतने कमजोर हैं, उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती के समान नजर आई। कुल मिला कर देश में पहली बार जितनी तेजी से लोकपाल की मांग उठी, वह भी फिलहाल फिस्स हो गई, यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि इस मांग की झंडाबरदार टीम अन्ना की साख भी कुछ कम हो गई और दिल्ली व मुंबई में आयोजित अनशन विफल हो गए व जेल भरो आंदोलन भी स्थगित हो गया। अब देखना ये है कि टीम अन्ना फिर से माहौल खड़ा कर पाती है या नहीं और यह भी कि कांग्रेस का अगले सत्र में परित करवाने का दावा कितना सही निकलता है।

बुधवार, 4 जनवरी 2012

खाद्य सुरक्षा बिल पर विचार

सरकार के "आधिकारिक अनुमान" के अनुसार देश में कम से कम 41 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें खाद्य सुरक्षा बिल के तहत भोजन दिया जाना अति-आवश्यक है…, जबकि अन्य 22 करोड़ ऐसे भी हैं जिन्हें एक वक्त का ही भोजन मिलता है। भूखे लोगों की यह जनसंख्या, 26 अफ़्रीकी देशों की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है। जबकि संयुक्त राष्ट्र द्वारा किये अध्ययन एवं "विश्व भूख सूचकांक" के अनुसार 88 देशों में से भारत का स्थान 66 वां है… ========

परिवर्तन तब नहीं आता जब आपकी परिस्थितयाँ सुधरती है |परिवर्तन तब आता है जब आप अपनी परिस्थितियों को सुधारने का संकल्प ले लेते हैं |

सोमवार, 2 जनवरी 2012

नववर्ष की शुभकामना

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे शन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ इन्ही भावनाओ के साथ,सभी को मेरी तरफ से, नये साल की शुभकामनाए....

रविवार, 1 जनवरी 2012

हिन्दी भाषा की स्थिति

हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का भान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए। यदि ऐसा किया जा सके तो सहज ही सब की समझ में यह आ जाएगा कि - 1. संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है, 2. वह सबसे अधिक सरल भाषा है, 3. वह सबसे अधिक लचीली भाषा है, 4, वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन हैं तथा 5. वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है। 6. हिन्दी लिखने के लिये प्रयुक्त देवनागरी लिपि अत्यन्त वैज्ञानिक है। 7. हिन्दी को संस्कृत शब्दसंपदा एवं नवीन शब्दरचनासामर्थ्य विरासत में मिली है। वह देशी भाषाओं एवं अपनी बोलियों आदि से शब्द लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल शब्द लगभग १०,००० हैं, जबकि हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है। 8. हिन्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड़ से भी अधिक है। 9. हिन्दी का साहित्य सभी दृष्टियों से समृद्ध है। 10. हिन्दी आम जनता से जुड़ी भाषा है तथा आम जनता हिन्दी से जुड़ी हुई है। हिन्दी कभी राजाश्रय की मुहताज नहीं रही। ११. भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की वाहिका और वर्तमान में देशप्रेम का अमूर्त-वाहन अब मै कुछ प्रश्न आप सबके सामने रख रहा हू उम्मीद है इस पर विचार करेगे 1. हिन्दी की भारत मे क्या प्रस्थिति है? 2. अंग्रेजी बोलने वाला एक बेवकूफ की भी स्थिति समाज मे उच्च क्यो मानी जाती है? 3.शुद्ध हिन्दी बोलने वाला मसखरा है? जाहिल है? गंवार है? 4. अंग्रेजी माध्यम स्कूलो तथा अंग्रेजी युक्त उच्च शिक्षा के विरुद्ध आन्दोलन हिन्दी के रहनुमा लोग करेगे? 5.हिन्दी लिपि के सिमटाव के पीछे किसका कुचक्र है? 6. हिन्दी के अपमान की सजा का क्या प्रावधान है? सभी पाठको से अनुरोध है कि वे सोचे और मंथन करे कि इस सन्दर्भ मे क्या किया जाना चाहिये.. जय हिन्दी जय नागरी (via Vikas Gupta)

भारतीय संस्कृति

किसी भी भाषा में कोई भी शब्द तभी बनाया जाता है जब उस शब्द में निहित अर्थ का विचार उत्पन्न होता है. बहुत से विचार और शब्द केवल और केवल भारतीय (सनातन) संस्कृति में ही हैं और आंगला (अंग्रेजी) में ऐसा कभी सोचा ही नहीं गया. उदाहरण : पाप : इसके लिए sin शब्द है लेकिन पुण्य ? पुण्य के लिए अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है क्यूंकि पुण्य का विचार ही उत्पन्न नहीं हुआ ! अभिषेक : इस के लिए कोई भी शब्द नहीं बना अंग्रेजी में क्यूंकि ये विचार ही उत्पन्न नहीं हुआ. शील : इसके लिए कोई भी शब्द नहीं बना अंगरेजी में क्यूंकि ये विचार ही उत्पन्न नहीं हुआ. किन्तु संस्कृत के साथ ये नहीं है. संस्कृत में हर विचार के लिए शब्द बनाया जा सकता है. ये object-oriented concept, inheritance, polymorphism....आदि ये सब संस्कृत में निहित हैं, लेकिन इनको हमने कभी विशेष नाम नहीं दिया गया है, बस इतनी सी बात है. जल्द ही संस्कृत प्रोग्रामिंग लैंग्वेज का आविष्कार हो जाएगा, तब भारत के अधिकाँश लोग ग्लानी से भर जाएंगे क्यूंकि उनको संस्कृत नहीं आती होगी.